सैरन्ध्री / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ 1


सुफल – दायिनी रहें राम-कर्षक की सीता;

आर्य-जनों की सुरुचि-सभ्यता-सिद्धि पुनिता।

फली धर्म-कृषि, जुती भर्म-भू शंका जिनसे,

वही एग हैं मिटे स्वजीवन – लंका जिनसे।

वे आप अहिंसा रूपिणी परम पुण्य की पूर्ति-सी,

अंकित हों अन्तःक्षेत्र में मर्यादा की मूर्ति-सी।

बुरे काम का कभी भला परिणाम न होगा,

पापी जन के लिए कहीं विश्राम न होगा।

अविचारी का काल भाल पर ही फिरता है,

कहीं सँभलता नहीं शील से जो गिरता है।

होते हैं कारण आप ही अविवेकी निज नाश में,

फँसते हैं कीचक सम स्वयं मनुजाधम यम-पाश में।

जब विराट के यहाँ वीर पाण्डव रहते थे,

छिपे हुए अज्ञात – वास – बाधा सहते थे।

एक बार तब देख द्रौपदी की शोभा अति –

उस पर मोहित हुआ नीच कीचक सेनापति।

यों प्रकट हुई उसकी दशा दृग्गोचर कर रूपवर,

होता अधीर ग्रीष्मार्त्त गज ज्यों पुष्करिणी देखकर।

यद्यपि दासी बनी, वस्त्र पहने साधारण,

मलिनवेश द्रौपदी किए रहती थी धारण।

वसन-वह्नि-सी तदपि छिपी रह सकी न शोभा,

उस दर्शक का चित्र और भी उस पर लोभा।

अति लिपटी भी शैवाल में कमल-कली है सोहती,

घन-सघन-घटा में भी घिरी चन्द्रकला मन मोहती।

छिपी हुई भी प्रकट रही मानो पांचाली,

छिप सकती थी कहाँ कान्ति कला निराली ?

वह अंगों की गठन और अनुपम अलकाली,

जा सकती थी कहाँ चाल उसकी मतवाली ?

काली काली आँखें बड़ी कानों से थीं लग रहीं,

गुण और रूप की ज्योतियाँ स्वाभाविक थीं जग रहीं।

सतियाँ पति के लिए सभी कुछ कर सकती हैं,

और अधिक क्या, मोद मान कर मर सकती हैं ।

नृप विराट की विदित सुदेष्णा थी जो रानी,

दासी उसकी बनी द्रौपदी परम सयानी ।

थी किन्तु देखने में स्वयं रानी की रानी वही,-

कीचक की, जिसको देख कर सुध-बुध सब जाती रही।

कीचक मूढ़, मदान्ध और अति अन्यायी था,

नृप का साला तथा सुदेष्णा का भाई था।

भट-मानी वह मत्स्यराज का था सेनानी,

गर्व-सहित था सदा किया करता मनमानी।

रहते थे स्वयं विराट भी उससे सदा सशंक-से,

कह सकते थे न विरुद्ध कुछ अधिकारी आतंक से।

तृप्त होकर रम्य रूप-रस की तृष्णा से,

बोला वह दुर्वृत्त एक दिन यों कृष्णा से –

“सैरन्ध्री, किस भाग्यशील की भार्या है तू ?

है तो दासी किन्तु गुणों से आर्या है तू !

मारा है स्मर ने शर मुझे तेरे इस भ्रू-चाप से !

अब कब तक तड़पूँगा भला विरह-जन्य सन्ताप से ?”

उसके ऐसे वचन श्रवण कर राजसदन में,

कृष्णा जलने लगी रोष से अपने मन में।

किन्तु समय को देख किसी विध धीरज धर के,

उससे कहने लगी शान्ति से शिक्षा कर के।

होता आवेश विशेष है यद्यपि मनोविकार में,

समयानुसार ही कार्य करते हैं संसार में।
सावधान हे वीर, न ऐसे वचन कहो तुम,

मन को रोको और संयमी बने रहो तुम।

है मेरा भी धर्म, उसे क्या खो सकती हूँ ?

अबला हूँ, मैं किन्तु न कुलटा हो सकती हूँ।

मां दीना हीना हूँ सही, किन्तु लोभ-लीना नहीं,

करके कुकर्म संसार में मुझको है जीना नहीं।

पर-नारी पर दृष्टि डालना योग्य नहीं है,

और किसी का भाग्य किसी को भोग्य नहीं है।

तुमको ऐसा उचित नहीं, यह निश्चय जानो,

निन्द्य कर्म से डरो, धर्म का भी भय मानो।

हैं देख रहे ऊपर अमर नीचे नर क्या कर रहे,

दुष्कृत में सुख है तो सुजन सुकृतों पर क्यों मर रहे ?

मेरे पति हैं पाँच देव अज्ञात निवासी,

तन-मन-धन से सदा उन्हीं की हूँ मैं दासी।

बड़े भाग्य से मिले मुझे ऐसे स्वामी हैं,

धर्म-रूप वे सदा धर्म के अनुगामी हैं।

इसलिए न छेड़ो तुम मुझे, सह न सकेंगे वे इसे,

श्रुत भीम पराक्रम-शील वे मार नहीं सकते किसे ?”

कीचक हँसने लगा और फिर उससे बोला –

“सैरन्ध्री, तेरा स्वभाव है सचमुच भोला।

तुझसे बढ़कर और पुण्य का फल क्या होगा,

जा सकता है यहीं स्वर्ग-सुख तुझसे भोगा।

भय रहने दे जय बोल तू, मेरा कीचक नाम है।

तेरे प्रभु-पंचक से मुझे चिन्त्य पंचशर काम है।

मैं तेरा हो चुका, तू न होगी क्या मेरी ?

पथ-प्रतीक्षा किया करूँगा कब तक तेरी ?

आज रात में दीप-शिखा-सी तू आ जाना,

दृष्टि-दान कर प्राण-दान का पुण्य कमाना।

जो मूर्ति हृदय में है बसी वही सामने हो खड़ी,

आ जावे झट-पट वह घड़ी यही लालसा है बड़ी।”

यह कहकर वह चला गया उस समय दम्भ से,

कृष्णा के पद हुए विपद-भय-जड़-स्तम्भ से !

जान पड़ा वह राजभवन गिरी-गुहा सरीखा,

उसमें भीषण हिंस्र-जन्तु-सा उसको दीखा।

वह चकित मृगी-सी रह गई आँखें, फाड़ बड़ी-बड़ी,

पर-कट पक्षिणी व्योम को देखे ज्यों भू पर पड़ी।

बड़ी देर तक खड़ी रही वह हिली न डोली,

फिर अचेत-सी अकस्मात चिल्लाकर बोली –

“है क्या कोई मुझे बचाओ, करो न देरी,

मैं अबला हूँ आज लाज लुट जाय न मेरी !

ऊपर नीचे कोई सुने मेरी यही पुकार है –

जिसको सद्धर्म-विचार है उस पर मेरा भार है।

हरे ! हरे ! गोविन्द, कृष्ण, तुम आज कहाँ हो ?

अथवा ऐसा ठौर कौन तुम नहीं जहाँ हो ?

रक्खी मेरी लाज तुम्हीं ने बीच सभा में,

हे अनन्त, पट तुम्हीं बने थे नीच-सभा में।

फिर आज विकट संकट पड़ा निकट पुकारूँ मैं किसे ?

यह अश्रु-वारि ही अर्घ्य है आओ अच्युत, लो इसे !”

भींगी कृष्णा इधर आँसुओं के पानी से,

कीचक ने यों कहा उधर जाकर रानी से –

“सैरन्ध्री-सी सखी कहाँ से तुमने पाई ?

बहन, बताओ कि यह कौन है, कैसे आई ?

देवी-सी दासी-रूप में दीख रही यह भामिनी।

बन गई तुम्हारी सेविका मेरे मन की स्वामिनी !”

सुन भाई की बात बहन ठिठकी, फिर बोली –

“ठहरो भैया, ठीक नहीं इस भाँति ठिठोली।

भाभी हैं क्या यहाँ चिढ़ें जो यह कहने से ?

और मोद हो तुम्हें विनोद-विषय रहने से !

अपमान किसी का जो करे वह विनोद भी है बुरा,

यह सुनकर ही होगी न क्या सैरन्ध्री क्षोभातुरा !

मैं भी उसको पूर्णरूप से नहीं जानती,

एक विलक्षण वधू मात्र हूँ उसे मानती।

सुनो, कहूँ कुछ हाल कि वह है कैसी नारी ?

उस दिन जब अवतीर्ण हुई, सन्ध्या सुकुमारी –

बैठी थी मैं विश्रान्ति से सहचरियों के संग में,

होता था वचन-विलास कुछ हास्य पूर्ण रस-रंग में।

वह सहसा आ खड़ी हुई मेरे प्रांगण में,

जय-लक्ष्मी प्रत्यक्ष खड़ी हो जैसे रण में !

वेश मलिन था किन्तु रूप आवेश भरा था।

था उद्देश्य अवश्य किन्तु आदेश भरा था।

मुख शान्त दिनान्त समान ही, निष्प्रभ किन्तु पवित्र था।

नभ के अस्फुट नक्षत्र-सा, हार्दिक भाव विचित्र था।

मुझ पर आदर दिखा रही थी, पर निर्भय थी,

अनुनय उसमें न था, सहज ही वह सविनय थी।

नेत्र बड़े थे, किन्तु दृष्टि भी सूक्ष्म बड़ी ही,

सबके मन में पैठ बैठ वह गई खड़ी ही !

वह हास्य बीच में ही रुका, सन्नाटा-सा छा गया,

मेरे गौरव में भी स्वयं कुछ घाटा-सा आ गया।

मुद्रा वह गम्भीर देख सब रुकी, जकी-सी

और दृष्टियाँ एकसाथ सब झुकी, थकी-सी।

काले काले बाल कन्धरा ढके खुले थे

गुँथे हुए-से व्याल मुक्ति के लिए तुले थे !

दृक् -पात न करती थी तनिक सौध विभव की ओर वह,

क्या कहूँ सौम्य या घोर थी कोमल थी कि कठोर वह !

सहसा मैं उठ खड़ी हुई उठ खड़ी हुई सब,

पर नीरव थी, भ्रान्त भाव में पडी हुई सब।

कया ससम्भ्रम प्रश्न अन्त में मैंने ऐसे –

भद्रे, तुम हो कौन ! और आई हो कैसे ?

उसके उत्तर के भाव का लक्ष्य न जाने था कहाँ –

मैं ? हाँ मैं अबला हूँ तथा आश्रयार्थ आई यहाँ।
इस पर निकला यही वचन तब मेरे मुख से –

अपना ही घर समझ यहाँ ठहरो तुम सुख से।

आश्रयार्थिनी नहीं असल में अतिथि बनी वह,

नहीं सेविका, किन्तु हुई मेरी स्वजनी वह।

अनुचरियों को साहस नहीं समझें उसे समान वे,

रह सकती नहीं किए बिना उसका आदर मान वे।

बहुधा अन्यमनस्क दिखाई पड़ती है वह,

मानो नीरव आप आप से लड़ती है वह !

करती करती काम अचानक रुक जाती है,

करके ग्रीवा-भंग झोंक से झुक जाती है !

बस भर सँभाल कर चित्त को श्रम से वह थकती नहीं,

पर भूल करे तो भर्त्सना मैं भी कर सकती नहीं।

कार्य-कुशलता देख-देख उसकी विस्मय से,

इच्छा होती है कि बड़ाई करे हृदय से।

किन्तु दीर्घ निश्वास उसे लेते विलोक कर,

रखना पड़ता मौन-भाव ही सहज शोक कर !

कुछ भेद पूछने से उसे होता मन में खेद है,

अति असन्तोष है पर उसे यांचा से निर्वेद है।

ऐसी ही दृढ़ जटिल चरित्रा है वह नारी,

दुखिया है, पर कौन कहे उसको बेचारी।

जब तब उसको देख भीति होती है मन में,

तो भी उस पर परम प्रीति होती है मन में।

अपना आदर मानो दया – करके वह स्वीकारती,

पर दया करो तो वह स्वयं, घृणा-भाव है धारती !

वृक्ष-भिन्न-सी लता तदपि उच्छिन्न नहीं वह,

मेरा सद्व्यवहार देखकर खिन्न नहीं वह।

जान सकी मैं यही बात उस गुणवाली की,

आली है वह विश्व-विदित उस पांचाली की।

जो पंच पाण्डवों की प्रिया प्रिय-समेत प्रच्छन्न है,

बस इसीलिए वह सुन्दरी सम्प्रति व्यग्र विपन्न है।

सैरन्ध्री / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ 2


किन्तु तुम्हें यह उचित नहीं जो उसको छेड़ो,

बुनकर अपना शौर्य्य यशःपट यों न उघेड़ो।

गुप्त पाप ही नहीं, प्रकट भय भी है इसमें,

आत्म-पराजय मात्र नहीं, क्षय भी है इसमें।

सब पाण्डव भी होंगे प्रकट, नहीं छिपेगा पाप भी

सहना होगा इस राज्य को अबला का अभिशाप भी।

सुन्दरियों का क्या अभाव है, तुम्हें, बताओ,

जो तुम होकर शूर उसे इस भाँति सताओ।

जीत सके मन भी न वीर तुम कैसे फिर हो ?

कहलाते हो धीर और इतने अस्थिर हो !

हम अबलाएँ तो एक की, होकर रहती हैं सदा

तुम पुरुषों को सौ भी नहीं, होती हैं तृप्ति-प्रदा !”

“बहन किसे यह सीख सिखाती हो तुम, मुझको ?

किसे धर्म का मार्ग दिखाती हो तुम, मुझको !

व्यर्थ ! सर्वथा व्यर्थ ! सुनूँ देखूँ क्या अब मैं !

सारी सुध-बुध उधर गँवा बैठा हूँ जब मैं।

उस मृगनयनी की प्राप्ति ही, है सुकीर्त्ति मेरी, सुनो,

चाहो मेरा कल्याण तो, कोई जाल तुम्हीं बुनो।

सुन्दरियों का क्या अभाव है मुझे, नहीं है,

प्राप्त वस्तु से किन्तु हुआ सन्तोष कहीं है ?

आग्रह तो अप्राप्त वस्तु का ही होता है,

हृदय उसी के लिए हाय ! हठ कर रोता है।

उसके पाने में ही प्रकट, होती है वर वीरता,

सोचो, समझो, इस तत्व की तनिक तुम्हीं गंभीरता।”

वह कामी निर्लज्ज नीच कीचक यह कह कर,

चला गया, मानों अधैर्य धारा में बह कर।

उसकी भगिनी खड़ी रही पाषाण-मूर्ति-सी,

भ्राता के भय और लाज की स्वयं पूर्त्ति-सी !

देखा की डगमग जाल वह उसकी अपलक दृष्टि से, –

जो भीग रही थी आप निज, घोर घृणा की वृष्टि से।
“राम-राम ! यह वही बली मेरा भ्राता है,

कहलाता जो एक राज्य भर का त्राता है !

जो अबला से आज अचानक हार रहा है,

अपना गौरव, धर्म, कर्म, सब वार रहा है।

क्या पुरुषों के चारित्र्य का, यही हाल है लोक में ?

होता है पौरुष पुष्ट क्या, पशुता के ही ओक में ?

सुन्दरता यदि बिधे, वासना उपजाती है,

तो कुल-ललना हाय ! उसे फिर क्यों पाती है ?

काम-रीति को प्रीति नाम नर देते हैं बस,

कीट तृप्ति के लिए लूटते हैं प्रसून-रस।

यदि पुरुष जनों का प्रेम है पावन नेम निबाहता

तो कीचक मुझ-सा क्यों नहीं, सैरन्ध्री को चाहता ?

सैरन्ध्री यह बात श्रवण कर क्या न कहेगी ?

वह मनस्विनी कभी मौन अपमान सहेगी ?

घोर घृणा की दृष्टि मात्र वह जो डालेगी,

मुझको विष में बुझी भाल-सी वह सालेगी !

ऐसे भाई की बहन मैं, हूँगी कैसे सामने,

होते हैं शासन-नीति के दोषी जैसे सामने।

किन्तु इधर भी नहीं दीखती है गति मुझको,

उभय ओर कर्त्तव्य कठिन है सम्प्रति मुझको।

विफलकाम यदि हुआ हठी कीचक कामातुर,

तो क्या जाने कौन मार्ग ले वह मदान्ध-उर।

राजा भी डरते हैं उसे, वह मन में किससे डरे ?

क्या कह सकता है कौन, वह – जो कुछ भी चाहे, करे।

इससे यह उत्पात शान्त हो तभी कुशल है,

विद्रोही विख्यात बली कीचक का बल है।

नहीं मानता कभी क्रूर वह कोई बाधा,

राज-सैन्य को युक्ति-युक्त है उसने साधा।

सैरन्ध्री सम्मत हो कहीं, तो फिर भी सुविधा रहे।

पर मैं रानी दूती बनूँ, हृदय इसे कैसे सहे ?

मन ही मन यह सोच सोच कर सभय सयानी,

सैरन्ध्री से प्रेम सहित बोली तब रानी –

इतने दिन हो गए यहाँ तुझको सखि, रहते,

देखी गई न किन्तु स्वयं तू कुछ भी कहते।

क्या तेरी इच्छा-पूर्ति की पा न सकूँगी प्रीति मैं ?

विस्मित होती हूँ देख कर, तेरी निस्पृह नीति मैं !”

सैरन्ध्री उस समय चित्र-रचना करती थी,

हाथ तुला था और तूलिका रंग भरती थी।

देख पार्श्व से मोड़ महा ग्रीवा, कुछ तन कर,

हँस बोली वह स्वयं एक सुन्दर छवि बनकर

“मैं क्या मांगूँ जब आपने, यों ही सब कुछ है दिया।

आज्ञानुसार वह दृश्य यह, लीजे, मैंने लिख दिया।”

“क्रिया-सहित तू वचन-विदग्धा भी है आली,

है तेरी प्रत्येक बात ही नई, निराली।”

यह कह रानी देख द्रौपदी को मुसकाई,

करने लगी सुचित्र देख कर पुनः बड़ाई।

“अंकित की है घटना विकट, किस पटुता के साथ में,

सच बतला जादू कौन-सा है तेरे इस हाथ में ?”

कुछ पुलकित कुछ चकित और कुछ दर्शक शंकित,

नृप विराट युत एक ओर थे छबि में अंकित।

एक ओर थी स्वयं सुदेष्णा चित्रित अद्भुत –

बैठी हुई विशाल झरोखे में परिकर युत,

मैदान बीच में था जहाँ, दो गज मत्त असीम थे,

उन दृढ़दन्तों के बीच में, बल्लव रूपी भीम थे।

यही भीम-गज-युद्ध चित्र का मुख्य विषय था,

जब निश्चय के साथ साथ ही सबको भय था।

पार्श्वों से भुजदण्ड वीर के चिपट रह थे,

उनमें युग कर-शुण्ड नाक-से लिपट रहे थे।

गज अपनी अपनी ओर थे उन्हें खींचते कक्ष से,

पर खिंचे जा रहे थे स्वयं, भीम-संग प्रत्यक्ष।

निकल रहा था वक्ष वीर का आगे तन कर,

पर्वत भी पिस जाए, अड़े जो बाधक बन कर,

दक्षिण-पद बढ़ चुका वाम अब बढ़ने को था,

गौरव-गिरि के उच्च श्रृंग पर चढ़ने को था।

मद था नेत्रों में दर्प का, मुख पर थी अरुणच्छटा,

निकला हो रवि ज्यों फोड़ कर, युगल गजों की घन घटा।

रानी बोली – “धन्य तूलिका है सखि तेरी,

कला-कुशलता हुई आप ही आकर चेरी।

किन्तु आपको लिखा नहीं तूने क्यों इसमें ?

वल्लव को प्रत्य़क्ष जयश्री रहती जिसमें ?

उस पर तेरा जो भाव है, मैं उसको हूँ जानती,

हँसती है लज्जा युक्त तू, तो भी भौंहें तानती।

सैरन्ध्री / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ 3


दोष जताने से न प्यार का रंग छिपेगा,

सौ ढोंगों से भी न कभी वह ढंग से छिपेगा।

विजयी वल्लव लड़ा वन्य जीवों से जब जब –

सहमी सबसे अधिक अन्त तक तू ही तब तब।

फल देख युद्ध का अन्त में बची साँस-सी ले अहा !

तेरे मुख का वह भाव है मेरे मन में बस रहा।”

“कह तो लिख दूँ उसे अभी इस चित्र फलक पर !

बात नहीं जो मुकर सके तू किसी झलक पर।

कह तो आँखें लिखूँ नहीं जो यह सह सकती,

न तो देख सकती न बिना देखे रह सकती।

या लिखूँ कनौखी दृष्टि वह, विजयी वल्लव पर पड़ी ?

नीचे मुख की मुसकान में, मुग्ध हृदय की हड़बड़ी !

वल्लव फिर भी सूपकार, साधारण जन है, –

और उच्च पद-योग्य धन्य यह यौवन-धन है।”

कृष्णा बोली – “देवि, आप कुछ कहें भले ही,

मुझको संशय योग्य समझती रहें भले ही।

पर करती नहीं कदापि हूँ कोई अनुचित कर्म मैं,

दासी होकर भी आपकी, रखती हूँ निज धर्म मैं।

लड़ता है नर एक क्रूर पशुओं से डट कर,

कौतुक हम सब लोग देखते हैं हट-हट कर।

उस पर तदपि सहानुभूति भी उदित न हो क्या ?

और उसे फिर जयी देख मन मुदित न हो क्या ?

यदि इतने से ही मैं हुई, संशय योग्य कुघोष से,

तो क्षमा कीजिए आप भी – बचेंगी न इस दोष से।

पद से ही मैं किन्तु मानती नहीं महत्ता,

चाहे जितनी क्यों न रहे फिर उसमें सत्ता।

स्थिति से नहीं, महत्व गुणों से ही बढ़ता है,

यों मयूर से गीध अधिक ऊँचे चढ़ता है।

बल्लव सम वीर बलिष्ठ का, पक्षपात किसको न हो,

क्या प्रीति नाम में ही प्रकट काम वासना है अहो !”

रानी ने हँस कहा – “दोष क्या तेरा इसमें ?

रहती नहीं अपूर्व गुणों की श्रद्धा किसमें ?

स्वाभाविक है काम-वासना भी हम सबकी,

और नहीं सो सृष्टि नष्ट हो जाती कब की ?

मेरा आशय था बस यही – तू उस जन के योग्य है,

अच्छी से अच्छी वस्तु इस – भव की जिसको भोग्य है।

रहने दे इस समय किन्तु यह चर्चा, जा तू,

कीचक को यह चारु चित्र जाकर दे आ तू।

भाई के ही लिए इसे मैंने बनवाया,

वल्लव का यह युद्ध बहुत था उसको भाया।

मेरा भाई भी है बड़ा, वीर और विश्रुत बली,

ऐसे कामों में सदा, खिलती है उसकी कली।”

त्योरी तत्क्षण बदल गई कृष्णा की सहसा,

रानी का यह कथन हुआ उसको दुस्सह-सा।

पालक का जी पली सारिका यथा जला दे,

हाथ फेरते समय अचानक चोंच जला दे !

वह बोली – “क्या यह भूमिका, इसीलिए थी आपकी ?

यह बात ‘महत्पद’ के लिए है कितने परिताप की ?”

कहा सुदेष्णा ने कि – “अरे तू क्या कहती है ?

अपने को भी आप सदा भूली रहती है।

करती हूँ सम्मान सदा स्वजनी-सम तेरा,

तू उलटा अपमान आज करती है मेरा !

क्या मैंने आश्रय था दिया, इसीलिए तुझको, बता –

तू कौन और मैं कौन हूँ, इसका भी कुछ है पता ?”

रानी के आत्माभिमान ने धक्का खाया,

सैरन्ध्री को भी न कार्य्य अपना यह भाया।

“क्षमा कीजिए देवि, आप महिषी मैं दासी,

कीचक के प्रति न था हृदय मेरा विश्वासी।

इसलिए न आपे में रही, सुनकर उसकी बात मैं,

सहती हूँ लज्जा-युक्त हा ! उसके वचनाघात मैं।

होकर उच्च पदस्थ नीच-पथ-गामी है वह,

पाप-दृष्टि से मुझे देखता, -कामी है वह।

नर होकर भी हाय ! सताता है नारी को,

अनाचार क्या कभी है उचित बलधारी को ?

यों तो पशु महिष वराह भी रखते साहस सत्व हैं,

होते परन्तु कुछ और ही, मनुष्यत्व के तत्व हैं।

मुझे न उसके पास भेजिए, यही विनय है,

क्योंकि धर्म्म के लिए वहाँ जाने में भय है।

रखिए अबला रत्न, आप अबला की लज्जा,

सुन मेरा अभियोग कीजिए शासन-सज्जा।

हा ! मुझे प्रलोभन ही नहीं, कीचक ने भय भी दिया,

मर्यादा तोड़ी धर्म की, और असंयम भी किया।”

रानी कहने लगी – “शान्त हो, सुन सैरन्ध्री,

अपनी धुन में भूल न जा, कुछ गुन सैरन्ध्री !

भाई पर तो दोष लगाती है तू ऐसे,

पर मेरा आदेश भंग करती है कैसे ?

क्या जाने से ही तू वहाँ फिर आने पाती नहीं ?

होती हैं बातें प्रेम की, सफल भला बल से कहीं !

तू जिसकी यों बार बार कर रही बुराई,

भूल न जा, वह शक्ति-शील है मेरा भाई !

करता है वह प्यार तुझे तो यह तो तेरा –

गौरव ही है, यही अटल निश्चय है मेरा।

तू है ऐसी गुण शालिनी, जो देखे मोहे वही,

फिर इसमें उसका दोष क्या, चिन्तनीय है बस यही।

तू सनाथिनी हो कि न हो उस नर पुंगव से,

उदासीन ही रहे क्यों न वैभव से, भव से।

पर तू चाहे लाख गालियाँ दीजो मुझको,

मैं भाभी ही कहा करूँगी अब से तुझको !

जा, दे आ अब यह चित्र तू जाकर अपनी चाल से।”

हो गई मूढ़-सी द्रौपदी, इस विचित्र वाग्जाल से।

बोली फिर – “आदेश आपका शिरोधार्य है,

होने को अनिवार्य किन्तु कुछ अशुभ कार्य है !

पापी जन का पाप उसी का भक्षक होगा।,

मेरा तो ध्रुव-धर्म सहायक रक्षक होगा ।”

चलते चलते उसने कहा, नभ की ओर निहार के –

“द्रष्टा हो दिनकर देव तुम, मेरे शुद्धाचार के।”

ठोका उसने मध्य मार्ग में आकर माथा –

“रानी करने चली आज है मुझे सनाथा !

विश्वनाथ हैं तो अनाथ हम किसको मानें ?

मैं अनाथ हूँ या सनाथ, कोई क्या जानें ?

मुझको सनाथ करके स्वयं, पाँच वार संसार में,

हे विधे, बहाता है बता, अब तू क्यों मँझधार में ?

हठ कर मेरी ननद चाहती है वह होना,

आवे इस पर हँसी मुझे या आवे रोना ?

पहले मेरी ननद दुःशाला ही तो हो ले ?

बन जाते हैं कुटिल वचन भी कैसे भोले !

मैं कौन और वह कौन है, मैं यह भी हूँ जानती।”

कर आप अधर दंशन चली कृष्णा भौंहे तानती।
“आ, विपत्ति, आ, तुझे नहीं डरती हूँ अब मैं,

देखूँ बढ़कर आप कि क्या करती हूँ अब मैं।

भय क्या है, भगवान भाव ही में है मेरा,

निश्चय, निश्चय जिये हृदय, दृढ़ निश्चय तेरा।

मैं अबला हूँ तो क्या हुआ ? अबलों का बल राम है,

कर्मानुसार भी अन्त में शुभ सबका परिणाम है।”

सैरन्ध्री को देख सहज अपने घर आया,

कीचक ने आकाश-शशी भू पर-सा पाया।

स्वागत कर वह उसे बिठाने लगा प्रणय से,

किन्तु खड़ी ही रही काँप कर कृष्णा भय से।

चुपचाप चित्र देकर उसे ज्यों ही वह चलने लगी,

त्यों ही कीचक की कामना उसको यों छलने लगी –

सैरन्ध्री / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ 4


“सुमुखि, सुन्दरी मात्र तुझे मैं समझ रहा था,

पर तू इतनी कुशल ! बहन ने ठीक कहा था।

इस रचना पर भला तुझे क्या पुरस्कार दूँ ?

तुझ पर निज सर्वस्व बोल मैं अभी वार दूँ !”

बोली कृष्णा मुख नत किए – “क्षमा कीजिए बस मुझे,

कुछ, पुरस्कार के काम में, नहीं दिखता रस मुझे।”

“रचना के ही लिए हुआ करती है रचना।”

कृष्णा चुप हो गई कठिन था तब भी बचना।

बोला खल – “पर दिखा चुका जो ललित कला यह,

क्या चूमा भी जाय कुशलता-कर न भला वह ?

सैरन्ध्री कहूँ विशेष क्या तू, ही मेरी सम्पदा,

मेरे वश में है, राज्य यह, मैं तेरे वश में सदा।”

हे अनुपम आनन्द-मूर्ति, कृशतनु, सुकुमारी,

बलिहारी यह रुचिर रूप की राशि तुम्हारी !

क्या तुम हो इस योग्य, रहो जो बनकर चेरी,

सुध बुध जाती रही देख कर तुझको मेरी।

इन दृग्बाणों से बिद्ध यह मन मेरा जब से हुआ,

है खान-पान-शयनादि सब विष-समान तब से हुआ।

अब हे रमणीरत्न, दया कर इधर निहारो,

मेरी ऐसी प्रीति नहीं कि प्रतीति न धारो।

मैं तो हूँ अनुरक्त, तनिक तुम भी अनुरागो।

रानी होकर रहो, वेश दासी का त्यागो।

होती है यद्यपि खान में किन्तु नहीं रहती पड़ी,

मणि, राज-मुकुट में ही प्रिये, जाती है आखिर जड़ी।”

“अहो वीर बलवान, विषम विष की धारा-से,

बोलो ऐसी बात न तुम मुझ पर-दारा से।

तुम जैसे ही बली कहीं अनरीति करेंगे,

तो क्या दुर्बल जीव धर्म का ध्यान धरेंगे ?

नर होकर इन्द्रिय-वश अहो ! करते कितने पाप हैं,

निज अहित-हेतु अविवेकि जन होते अपने आप हैं।

राजोचित सुख-भोग तुम्हीं को हों सुख-दाता,

कर्मों के अनुसार जीव जग में फल पाता।

रानी ही यदि किया चाहता मुझको धाता,

तो दासी किसलिए प्रथम ही मुझे बनाता।

निज धर्म-सहित रहना भला, सेवक बन कर भी सदा,

यदि मिले पाप से राज्य भी, त्याज्य समझिए सर्वदा।

इस कारण हे वीर, न तुम यों मुझे निहारो,

फणि-मणि पर निज कर न पसारो, मन को मारो।

प्रेम करूँ मैं बन्धु, मुझे तुम बहन विचारो, –

पाप-गर्त्त से बचो, पुण्य-पथ पर पद धारो।

अपने इस अनुचित कर्म के लिए करो अनुताप तुम,

मत लो मस्तक पर वज्र-सम सती-धर्म का शाप तुम।”

कृष्णा ने इस भाँति उसे यद्यपि समझाया,

किन्तु एक भी वचन न उसके मन को भाया।

मद-मत्तों को यथा-योग्य उपदेश सुनाना,

है ऊपर में यथा वृथा पानी बरसाना।

कर सकते हैं जो जन नहीं मनोदमन अपना कभी,

उनके समक्ष शिक्षा कथन निष्फल होता है सभी।

“रहने दो यह ज्ञान, ध्यान, ग्रन्थों की बातें !

फिर फिर आती नहीं सुयौवन की दिन-रातें।

करिए सुख से वही काम, जो हो मनमाना,

क्या होगा मरणोपरान्त, किसने यह जाना ?

जो भावों की आशा किए वर्तमान सुख छोड़ते,

वे मानो अपने आप ही निज-हित से मुँह मोड़ते।”

कह कर ऐसे वचन वेग से बिना विचारे,

आतुर हो अत्यन्त, देह की दशा बिसारे।

सहसा उसने पकड़ लिया कर पांचाली का,

मानो किसलय-गुच्छ नाग ने नत डाली का।

कीचक की ऐसी नीचता देख सती क्षोभित हुई,

कर चक्षु चपल-गति से चकित शम्पा-सी शोभित हुई।

जो सकम्प तनु-यष्टि झूलती रज्जु सदृश थी,

शिथिल हुई निर्जीव दीख पड़ती अति कृश थी।

आहा ! अब हो उठी अचानक वह हुंकारित,

ताब-पेंच खा बनी कालफणिनी फुंकारित।

भ्रम न था रज्जु में सर्प की उपमा पूरी घट गई,

कीचक के नीचे की धरा मानो सहसा हट गई।
“अरे नराधम, तुझे नहीं लज्जा आती है ?

निश्चय तेरी मृत्यु मुण्ड पर मंडराती है।

मैं अबला हूँ किन्तु न अत्याचार सहूँगी,

तुझे दानव के लिए चण्डिका भी बनी रहूँगी।

मत समझ मुझे तू शशि-सुधा खल, निज कल्मष राहु की,

मैं सिद्ध करूँगी पाशता अपने वामा-बाहु की।

होता है यदि पुलक हमारी गल-बाहों में, –

तो कालानल नित्य निकलता है आहों में !”

यों कह कर झट हाथ छुड़ाने को उस खल से,

तत्क्षण उसने दिया एक झटका अति बल से।

तब मानों सहसा मुँह के बल वहाँ मदोन्मत्त वह गिर पड़ा,

मानों झंझा के वेग से पतित हुआ पादप बड़ा।

तब विराट की न्याय-सभा की नींव हिलाने,

उस कामी को कुटिल-कर्म का दण्ड दिलाने,

कच-कुच और नितम्ब-भार से खेदित होती,

गई किसी विध शीघ्र द्रौपदी रोती रोती।

पीछे से उसको मारने उठकर कीचक भी चला,

उस अबला द्वारा भूमि पर गिरना उसको खला।

कृष्णा पर कर कोप शीघ्र झपटा वह ऐसे –

थकी मृगी की ओर तेंदुआ लपके जैसे।

भरी सभा में लात उसे उस खल ने मारी,

छिन्न लता-सी गिरी भूमि पर वह बेचारी।

पर सँभला कीचक भी नहीं निज बल-वेग विशेष से,

फिर मुँह की खाकर गिर पड़ा दुगुने विगलित वेष से।

सैरन्ध्री / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ 5


धर्मराज भी कंक बने थे वहाँ विराजे,

लगा वज्र-सा उन्हें मौलि पर घन से गाजे।

सँभले फिर भी किसी तरह वे ‘हरे, हरे,’ कह !

हुए स्तब्ध- सभी सभासद ‘अरे, अरे,’ कह !

करके न किन्तु दृक्-पात तक कीचक उठा, चला गया,

मानो विराट ने चित्त में यही कहा कि ‘भला गया’।

सम्बोधन कर सभा-मध्य तब मत्स्यराज को,

बोली कृष्णा कुपित, सुना कर सब समाज को।

मधुर कण्ठ से क्रोध-पूर्ण कहती कटु वाणी,

अद्भुत छबि को प्राप्त हुई तब वह कल्याणी।

ध्वनि यद्यपि थी आवेग-मय, पर वह कर्कश थी नहीं,

मानो उसने बातें सभी वीणा में होकर कहीं।

“भय पाती है जहाँ राजगृह में ही नारी,

होता अत्याचार यथा उस पर है भारी।

सब प्रकार विपरीत जहाँ की रीति निहारी,

अधिकारी ही जहाँ आप हैं अत्याचारी।

लज्जा रहनी अति कठिन है कुल-वधुओं की भी जहाँ,

हे मत्स्यराज, किस भाँति तुम हुए प्रजा-रंजक वहाँ।

छोड़ धर्म की रीति, तोड़ मर्यादा सारी,

भरी सभा में लात मुझे कीचक ने मारी,

उसका यह अन्याय देख कर भी भय-दायी,

न्यायासन पर रहे मौन तुम बन कर न्यायी !

हे वयोवृद्ध नरनाथ क्या, यही तुम्हारा धर्म है ?

क्या यही तुम्हारे राज्य की राजनीति का मर्म है ?

तुमसे यदि सामर्थ्य नहीं है अब शासन का,

तो क्यों करते नहीं त्याग तुम राजासन का ?

करने में यदि दमन दुर्जनों का डरते हो,

तो छूकर क्यों राज-दण्ड दूषित करते हो !

तुमसे निज पद का स्वाँग भी, भली भाँति चलता नहीं।

आधिकार-रहित इस छत्र का भार तुम्हें खलता नहीं ?

प्राणसखी जो पञ्च पाण्डवों की पाञ्चाली,

दासी भी मैं उसी द्रौपदी की हूँ आली।

हाय ! आज दुर्दैव-विवश फिरती हूँ मारी,

वचनबद्ध हो रहे वीरवर वे व्रत-धारी।

करता प्रहार उन पर न यों दुर्विध यदि कर्कश कशा

तो क्यों होती मेरी यहाँ इस प्रकार यह दुर्दशा ?

अहो ! दयामय धर्मराज, तुम आज कहाँ हो ?

पाण्डु-वंश के कल्पवृक्ष नरराज, कहाँ हो ?

बिना तुम्हारे आज यहाँ अनुचरी तुम्हारी,

होकर यों असहाय भोगती है दुख भारी।

तुम सर्वगुणों के शरण यदि विद्यमान होते यहाँ,

तो इस दासी पर देव, क्यों पड़ती यह विपदा महा ?

तुम-से प्रभु की कृपा-पात्र होकर भी दासी,

मैं अनाथिनी-सदृश यहाँ जाती हूँ त्रासी !

जब आजातरिपु, बात याद मुझको यह आती,

छाती फटती हाय ! दुःख दूना मैं पाती।

कर दी है जिसने लोप-सी नाग-भुजंगों की कथा,

हा ! रहते उस गाण्डीव के हो मुझको ऐसी व्यथा !

जिस प्रकार है मुझे यहाँ कीचक ने घेरा,

होता यदि वृत्तान्त विदित तुमको यह मेरा।

तो क्या दुर्जन, दुष्ट, दुराचारी यह कामी,

जीवित रहता कभी तुम्हारे कर से खामी !

तुम इस अधर्म अन्याय को देख नहीं सकते कभी,

हे वीर ! तुम्हारी नीति की उपमा देते हैं सभी।

क्रूर दैव ने दूर कर दिया तुमसे जिसको,

संकट मुझको छोड़ और पड़ता यह किसको ?

यह सब है दुरदुष्ट-योग, इसका क्या कहना ?

मेरा अपने लिए नहीं कुछ अधिक उलाहना।

पर जो मेरे अपमान से तुम सबका अपमान है।

हे कृतलक्षण, मुझको यही चिन्ता महान है !”

सुन कर निर्भय वचन याज्ञसेनी के ऐसे,

वैसी ही रह गई सभा, चित्रित हो जैसे।

कही हुई सावेग गिरा उसकी विशुद्ध वर,

एक साथ ही गूँज गई उस समय वहाँ पर।

तब ज्यों ज्यों करके शीघ्र ही अपने मन को रोक के,

यों धर्मराज कहने लगे उसकी ओर विलोक के, –

“हे सैरन्ध्री, व्यग्र न हो तुम, धीरज धारो,

नरपति के प्रति वचन न यों निष्ठुर उच्चारो

न्याय मिलेगा तुम्हें, शीघ्र महलों में जाओ,

नृप हैं अश्रुवृत्त, न को दोष लगाओ।

शर-शक्ति पाण्डवों की किसे ज्ञात नहीं संसार में ?

पर चलता है किसको कहो, वश विधि के व्यापार में ?”